थी औकात इस इश्क़ की इतनी कि कोई इसका मूल नहीं लगासकता ,हो गयी है हालत इसकी के यह खुद अपना वजूद भी नहीं बचा सकता ,पता नहीं अब किसे दोषी ठहराऊ ,है ये लोगों की गलती या इश्क़ को ही गुनहगार बनाऊं .मोहब्बत में की जाने वाली इबादत था ये इश्क़ ,पर आज धोखे से खेले जाने वाला खेल है ये ,मिलते है खिलौने इसके , कितनी ही दुकानों में,पहचान थी जिसकी बड़े बड़े दीवानो में, आज बिकता है वही इश्क़ दौलत के पैमानों में।अधूरी है अभी इस मर्ज़ की कहानी,कमी है लफ़्ज़ों की,अधूरे हैं अलफ़ाज़,शायद नीयत नहीं है अभी इसे पूरा करने की आज ,थामूंगा नहीं यहीं पर, करूँगा मैं पूराये दासतां ए इश्क़, मेरी ज़ुबानी।
The blog is to express my emotions, views and opinions, poured out in the form of poetry. I know feelings can't be expressed in word but क्या करूँ उठा है दिल में एक सैलाब, जिसे शब्दों में पिरोने को हो रहा है ये बेताब।
Sunday, February 23, 2014
दासतां ए इश्क़
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