Sunday, February 23, 2014

तो क्या बात थी !

जज़बा भी था जूनून भी था,
ज़रूरत थी तो एक चिंगारी की,
पता था मंज़िल का , पता थे रास्ते भी,
बस दिशा मिल जाती तो क्या बात थी।

निकल पड़े थे सफ़र पर,
मुकाम पाने को थे तैयार,
थे मुश्किलों से बेखबर,
खतरों कि भनक भी ना थी,
अगर होता इतना सरल ये सफ़र तो क्या बात थी।

मिले थे हमसफ़र राह में,
लेकिन थे सभी अनजान,
मंज़िल थी नज़दीक, बस कुछ कदम की बात थी,
अगर संग होता कोई अपना, तो उस कामयाबी की क्या बात थी।

भूखा है इंसान प्यार का

बिताने को एक पल नहीं किसी के पास,
कहने को साथ है जीवनभर का,
नहीं चाहिए ये दौलत इसे,
भूखा है इंसान प्यार का।

चलना तुझे सिखाया जिसने,
मुश्किलों से लड़ना सिखाया जिसने,
वो रह गया है पिता केवल नाम का,
तुझसे कुछ नहीं मांगता बेटा,
भूखा हूँ मैं तो तेरे प्यार का।

दुनिया में जो तुझे लेकर आयी,
तेरी खातिर उसने तकलीफ उठाई,
9 महीनों तक उसने तेरा बोझ उठाया,
ज़िन्दगी भर तेरा दर्द अपनाया,
तेरी जिसने इतनी सेवा की,
वो आज भी कुछ ना मांगती,
भूखी है वो माँ आज भी तेरे प्यार की।

क्या हो गयी है आज तेरी दशा,
दौलत का चढ़ गया है तझे नशा,
होता था जिसे एहसास प्यार का,
भूखा है वो आज खुमार का,
अब मर गया उसका ज़मीर,
जी रहा है केवल एक शरीर,
तरसता है वो किसी के साथ का,
क्यूंकि, आज भी भूखा है इंसान, प्यार का।

यूँ ही मैं लिखता चला।

छिड़े फिर मेरे दिल के साज़,
आयी जब जज़बातो की आवाज़,
इन्ही को बस मैं सुनता चला,
और बस यूँ ही मैं लिखता चला।

होगी कोई वजह इस सफ़र की,
तलाशना जिसे मुश्किल था,
नाजाने अँधेरा था राह में,
या पड़ा आखों पर मेरी पर्दा था,
मिली मुझे एक किरण, उसी का पीछा करता चला,
उसी रौशनी के लिए बस यूँ ही मैं लिखता चला।

कभी एक नफरत थी तो कभी प्यार का एहसास,
कभी था मन में रोष तो कभी ना था विचार ख़ास,
और कभी अपनी यादों को संजोता मैं चला,
और बस यूँ ही मैं अपनी बातों को लिखता चला।

साँसों के थमने पर होगा इसका अंत,
और थम जाएगा ये परिमित पंथ,
भुला कर इसका मुकाम शब्दों के मोती पिरोता चला,
और किसी कि परवाह किये बिना बस यूँ ही मैं लिखता चला।

Na jaane kaha kho gaya hun main !

Kuch khwab hai mann mein mere 
udaan bharne ko hai ye khade, 
gire na ye kabhi, honslo se hu bharta, 
na jaane kyun kho gaya hun main, 
chalte huye apni manzil talaashta. 

Kabhi milti mujhe koi ek disha, 
milti kabhi mujhe dusri koi, 
magar chalna hai inhi par mujko, 
iski mujhe samajh na hoye. 
Dhundli kiran ki roshni mein 
mann mera yeh vicharta, 
na jaane kyun kho gaya hun main, 
ujaale mein apni manzil talaashta. 

Tarkeebon ki thi jaha chahal pahal, 
sannaate se bhar gaya hai vo mahal. 
Jazbe ka naamo nishaan nahi ab, 
junoon ka jaha sher tha dahaadta, 
na jaane kyun kho gaya hun main, 
un galiyaro mein apni manzil talaashta. 

Bhul gaya tha main is baat ko, 
thi manzil meri talaashna khud ko, 
khoj lunga apne aap ko pukaarta, 
na jaane kaha kho gaya hun main, 
dusro mein hun khud ko talaashta.

दासतां ए इश्क़

थी  औकात  इस  इश्क़  की  इतनी  कि  कोई  इसका  मूल  नहीं  लगासकता , 
हो  गयी  है  हालत  इसकी  के  यह  खुद  अपना  वजूद  भी  नहीं  बचा  सकता ,
 पता   नहीं  अब  किसे  दोषी  ठहराऊ ,
है  ये  लोगों  की  गलती  या  इश्क़  को  ही  गुनहगार  बनाऊं . 
मोहब्बत  में  की  जाने  वाली  इबादत  था  ये  इश्क़ ,
पर  आज  धोखे  से  खेले  जाने  वाला  खेल  है ये ,
मिलते  है  खिलौने  इसके , कितनी ही दुकानों में, 
पहचान थी जिसकी बड़े बड़े दीवानो में, आज बिकता है वही इश्क़ दौलत के पैमानों में। 
अधूरी है अभी इस मर्ज़ की कहानी,
कमी है लफ़्ज़ों की,अधूरे हैं अलफ़ाज़,
शायद नीयत नहीं है अभी इसे पूरा करने की आज ,
थामूंगा नहीं यहीं पर, करूँगा मैं पूरा 
ये दासतां ए इश्क़, मेरी ज़ुबानी।