Sunday, February 23, 2014

यूँ ही मैं लिखता चला।

छिड़े फिर मेरे दिल के साज़,
आयी जब जज़बातो की आवाज़,
इन्ही को बस मैं सुनता चला,
और बस यूँ ही मैं लिखता चला।

होगी कोई वजह इस सफ़र की,
तलाशना जिसे मुश्किल था,
नाजाने अँधेरा था राह में,
या पड़ा आखों पर मेरी पर्दा था,
मिली मुझे एक किरण, उसी का पीछा करता चला,
उसी रौशनी के लिए बस यूँ ही मैं लिखता चला।

कभी एक नफरत थी तो कभी प्यार का एहसास,
कभी था मन में रोष तो कभी ना था विचार ख़ास,
और कभी अपनी यादों को संजोता मैं चला,
और बस यूँ ही मैं अपनी बातों को लिखता चला।

साँसों के थमने पर होगा इसका अंत,
और थम जाएगा ये परिमित पंथ,
भुला कर इसका मुकाम शब्दों के मोती पिरोता चला,
और किसी कि परवाह किये बिना बस यूँ ही मैं लिखता चला।

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